यह कविता जय प्रकाश नारायण की जन्म शताव्दी समारोह(११ अक्टूबर २००२ ) के अवसर पर शेरघाटी से प्रकाशित पत्रिका में प्रकाशित हुई |
सारथि
'सारथि' एक ब्लॉग नहीं है, एक अनुभूति है, जिसे मेरे दादा जी ने समय के हर पल के साथ जीया है, उनकी कवितायेँ एक ओर जहाँ महाभारत के अर्जुन का गांडीव है जो समाज के युवाओं को ललकारती है तो दूसरी ओर सारथि के रूप में कृष्ण की तरह पथप्रदर्शक है . इनकी कवितायेँ जहाँ किसानों में नयी उर्जा भरती है तो शब्दों की तुलिका से भ्रष्ट हो चुके समाज को रास्ता दिखलाती है - अनुपम (स्वतंत्र पत्रकार )
मंगलवार, 10 अगस्त 2010
शुक्रवार, 6 अगस्त 2010
शंखनाद कवियों के
किसी कवि ने कभी कहा था , कलम बंधी स्वछंद नहीं I
लेकिन अब तो हृदय बंद है, कवि की कलमें बंद नहीं II
कभी कलम थी आग उगलती , शोले का वर्षण करती I
ज्वालामुखी जगा देती थी , झंझा भी नर्तन करती II
कभी "पुष्प की अभिलाषा थी "वलि-पथ पर विछ जाने की I
"मैं हूँ एक सिपाही" की थी , इच्छा तीर चलाने की II
खोकर निज अधिकार बैठना" समझा जाता था दुष्कर्म I
अधिकार हित वलि चढ़ाना, देश दिवानों का था धर्म II
"तुंग हिमाद्रि के श्रृंगों से " झरती थी भारती प्रबुद्ध I
स्वयं प्रभावित स्वतंत्रता , आवाहन करती अनवरूध II
"शंखनाद कर प्रलयंकर, शंकर को न्योता देते थे I
'अर्जुन से गाण्डीव भीम से गदा ही माँगा करते थे 'II
कभी कवि का उद्वोधन था, "कलम आज उनकी जय बोल 'I
जिसने स्वतंत्रता के पथ पर, जानें छिड़का दीं अनमोल 'II
जननी -जन्मभूमि थी अपनी, स्वर्गादपि गरीयसी 'I
स्वतंत्रता की वलि-वेदी पर, कुर्वानी थी बलीयसी II
'आवहु सब मिल रोवहु भाई भारत दुर्दशा न देखी जाई 'I
कवि का यह उद्वोधन सुनकर, सोये भारत ने ली अंगडाई II
'त्वमेव भारती-मही, त्रिकोण देश वासिनी I
त्रिकोण मान चित्रिणी, सुयांत्रिणी सुवासिनी ' II
'सरफरोशी की तमन्ना, तब हमारे दिल में थी I
देखना था जोर कितना, बाजुएँ कातिल में थी' II
अब यहाँ निर्दोष पर, चाकू चलाना कर्म है I
लूट घोटाला ही करना , अब सभी का धर्म है II
'सारे जहाँ से अच्छा, हिंदुस्तान हमारा' I
घर घर में गूंजता था, बस यह पवित्र नारा II
हर जिव्हा से उद्घोषित, होता था वन्देमातरम "I
"जय हिंद " किल्लोलित यमुना गंगा था वन्देमातरम II
"झंडा ऊँचा रहे हमारा" , गान गगन की गीता था I
भारत वसुंधरा का कण कण यह उमंग रस पीता था II
"खूब लड़ी मर्दानी वह तो, झाँसी वाली रानी थी "I
कुंवर सिंह, नाना, तात्या, मंगल की यही दिवानी थी II
राजगुरु, सुखदेव, खुदी ने, भी दे दी कुर्वानी I
भगत सिंह, आजाद, सफिकुल्ला, विस्मिल थे वलिदानी II
"भाई एक लहर बन आया, बहन नदी की धारा थी I
यह जेल नहीं ससुराल है यार", घर ही काली कारा थी II
कवियों की कलमों से, क्रांति की चिंगारी झरती थी I
वलिपंथी के शोणित से, भारत की क्यारी झरती थी II
( यह कविता ४-१० १९९८ को लिखी गयी )
किसी कवि ने कभी कहा था , कलम बंधी स्वछंद नहीं I
लेकिन अब तो हृदय बंद है, कवि की कलमें बंद नहीं II
कभी कलम थी आग उगलती , शोले का वर्षण करती I
ज्वालामुखी जगा देती थी , झंझा भी नर्तन करती II
कभी "पुष्प की अभिलाषा थी "वलि-पथ पर विछ जाने की I
"मैं हूँ एक सिपाही" की थी , इच्छा तीर चलाने की II
खोकर निज अधिकार बैठना" समझा जाता था दुष्कर्म I
अधिकार हित वलि चढ़ाना, देश दिवानों का था धर्म II
"तुंग हिमाद्रि के श्रृंगों से " झरती थी भारती प्रबुद्ध I
स्वयं प्रभावित स्वतंत्रता , आवाहन करती अनवरूध II
"शंखनाद कर प्रलयंकर, शंकर को न्योता देते थे I
'अर्जुन से गाण्डीव भीम से गदा ही माँगा करते थे 'II
कभी कवि का उद्वोधन था, "कलम आज उनकी जय बोल 'I
जिसने स्वतंत्रता के पथ पर, जानें छिड़का दीं अनमोल 'II
जननी -जन्मभूमि थी अपनी, स्वर्गादपि गरीयसी 'I
स्वतंत्रता की वलि-वेदी पर, कुर्वानी थी बलीयसी II
'आवहु सब मिल रोवहु भाई भारत दुर्दशा न देखी जाई 'I
कवि का यह उद्वोधन सुनकर, सोये भारत ने ली अंगडाई II
'त्वमेव भारती-मही, त्रिकोण देश वासिनी I
त्रिकोण मान चित्रिणी, सुयांत्रिणी सुवासिनी ' II
'सरफरोशी की तमन्ना, तब हमारे दिल में थी I
देखना था जोर कितना, बाजुएँ कातिल में थी' II
अब यहाँ निर्दोष पर, चाकू चलाना कर्म है I
लूट घोटाला ही करना , अब सभी का धर्म है II
'सारे जहाँ से अच्छा, हिंदुस्तान हमारा' I
घर घर में गूंजता था, बस यह पवित्र नारा II
हर जिव्हा से उद्घोषित, होता था वन्देमातरम "I
"जय हिंद " किल्लोलित यमुना गंगा था वन्देमातरम II
"झंडा ऊँचा रहे हमारा" , गान गगन की गीता था I
भारत वसुंधरा का कण कण यह उमंग रस पीता था II
"खूब लड़ी मर्दानी वह तो, झाँसी वाली रानी थी "I
कुंवर सिंह, नाना, तात्या, मंगल की यही दिवानी थी II
राजगुरु, सुखदेव, खुदी ने, भी दे दी कुर्वानी I
भगत सिंह, आजाद, सफिकुल्ला, विस्मिल थे वलिदानी II
"भाई एक लहर बन आया, बहन नदी की धारा थी I
यह जेल नहीं ससुराल है यार", घर ही काली कारा थी II
कवियों की कलमों से, क्रांति की चिंगारी झरती थी I
वलिपंथी के शोणित से, भारत की क्यारी झरती थी II
( यह कविता ४-१० १९९८ को लिखी गयी )
बुधवार, 4 अगस्त 2010
निष्ठुर जग की रीत
हाहाकार ह्रदय में होता ,मन चुपके चुपके है रोता,
पग-पग पर बहता रहता है,कहीं ख़ुशी का अविरल सोता .
नर नियति का क्रीत .........निष्ठुर---- ..
कहीं सिसक तो कहीं जलन है कहीं वेदना की तड़पन
कहीं चैन की बंशी बजती कहीं ख़ुशी का खिला चमन
कहीं रुदन कहीं गीत .......निष्ठुर------
आज मिलन तो कल बिछुडन हैजीवन के ही बाद मरण है
कहीं हरीतिमा के पर्दों में पलता रहता सूखापन है
कहीं घृणा कहीं प्रीत .......निष्ठुर ------
नर आता जग के आँगन में,बड़े मधुर सपने ले मन में
वह क्षण भंगुरता के गढ़में सो जाता जीवन पल भर में
जीवन बालू भीत ............निष्ठुर -------
यह संसार समर का आँगन जीवन-युद्ध जहाँ होता है
युद्ध जीत हँसता है कोई, कोई सब कुछ खो देता है
कहीं हार कहीं जीत .........निष्ठुर
( यह कविता सन १-७ -१९५२ को लिखी गयी )
हाहाकार ह्रदय में होता ,मन चुपके चुपके है रोता,
पग-पग पर बहता रहता है,कहीं ख़ुशी का अविरल सोता .
नर नियति का क्रीत .........निष्ठुर---- ..
कहीं सिसक तो कहीं जलन है कहीं वेदना की तड़पन
कहीं चैन की बंशी बजती कहीं ख़ुशी का खिला चमन
कहीं रुदन कहीं गीत .......निष्ठुर------
आज मिलन तो कल बिछुडन हैजीवन के ही बाद मरण है
कहीं हरीतिमा के पर्दों में पलता रहता सूखापन है
कहीं घृणा कहीं प्रीत .......निष्ठुर ------
नर आता जग के आँगन में,बड़े मधुर सपने ले मन में
वह क्षण भंगुरता के गढ़में सो जाता जीवन पल भर में
जीवन बालू भीत ............निष्ठुर -------
यह संसार समर का आँगन जीवन-युद्ध जहाँ होता है
युद्ध जीत हँसता है कोई, कोई सब कुछ खो देता है
कहीं हार कहीं जीत .........निष्ठुर
( यह कविता सन १-७ -१९५२ को लिखी गयी )
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