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शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

                         शंखनाद कवियों के
किसी  कवि   ने  कभी  कहा  था , कलम  बंधी  स्वछंद  नहीं I
लेकिन  अब तो हृदय बंद है, कवि   की   कलमें   बंद    नहीं II
कभी कलम थी आग उगलती , शोले   का     वर्षण    करती  I
ज्वालामुखी   जगा   देती थी ,  झंझा     भी  नर्तन    करती  II
कभी "पुष्प की अभिलाषा थी "वलि-पथ पर विछ जाने  की I
"मैं हूँ एक सिपाही"  की  थी ,   इच्छा    तीर    चलाने    की II
खोकर  निज अधिकार  बैठना"  समझा  जाता  था  दुष्कर्म I
अधिकार  हित  वलि  चढ़ाना, देश  दिवानों  का   था   धर्म  II
"तुंग  हिमाद्रि  के  श्रृंगों से "    झरती    थी   भारती    प्रबुद्ध I
स्वयं  प्रभावित  स्वतंत्रता ,  आवाहन   करती     अनवरूध II
"शंखनाद  कर   प्रलयंकर,   शंकर  को    न्योता      देते    थे I
'अर्जुन  से  गाण्डीव  भीम  से   गदा  ही    माँगा  करते   थे 'II
कभी  कवि का उद्वोधन था, "कलम आज उनकी जय बोल 'I
जिसने  स्वतंत्रता  के  पथ  पर, जानें छिड़का दीं अनमोल 'II
जननी -जन्मभूमि    थी    अपनी,     स्वर्गादपि   गरीयसी 'I
स्वतंत्रता  की वलि-वेदी  पर,      कुर्वानी      थी    बलीयसी II
'आवहु  सब  मिल  रोवहु   भाई भारत  दुर्दशा  न   देखी जाई 'I
कवि  का  यह  उद्वोधन  सुनकर, सोये भारत ने ली   अंगडाई II
'त्वमेव       भारती-मही,      त्रिकोण          देश       वासिनी I
त्रिकोण   मान      चित्रिणी,        सुयांत्रिणी        सुवासिनी ' II
'सरफरोशी  की  तमन्ना,  तब    हमारे     दिल        में     थी I
देखना     था   जोर   कितना,    बाजुएँ    कातिल    में    थी' II
अब  यहाँ   निर्दोष   पर,         चाकू      चलाना       कर्म    है I
लूट     घोटाला    ही    करना ,     अब  सभी   का   धर्म   है II
'सारे     जहाँ     से      अच्छा,             हिंदुस्तान      हमारा' I
घर  घर  में  गूंजता  था,   बस    यह       पवित्र           नारा II
 हर   जिव्हा    से     उद्घोषित,     होता     था   वन्देमातरम "I
"जय   हिंद "    किल्लोलित   यमुना   गंगा था   वन्देमातरम II
"झंडा   ऊँचा  रहे  हमारा" ,   गान     गगन    की    गीता   था I
भारत   वसुंधरा   का   कण   कण   यह    उमंग  रस पीता था II
"खूब   लड़ी   मर्दानी   वह   तो,       झाँसी    वाली    रानी थी "I
कुंवर  सिंह,  नाना,  तात्या,  मंगल  की   यही   दिवानी     थी II
राजगुरु,     सुखदेव,    खुदी ने,      भी    दे     दी          कुर्वानी I
भगत सिंह,    आजाद,    सफिकुल्ला,  विस्मिल थे  वलिदानी II
"भाई  एक  लहर  बन आया,   बहन   नदी   की         धारा थी I
यह   जेल  नहीं   ससुराल   है यार",  घर ही   काली कारा थी  II
कवियों   की  कलमों  से,  क्रांति  की     चिंगारी      झरती   थी I
वलिपंथी  के  शोणित से,   भारत   की      क्यारी    झरती थी II
                                        ( यह कविता  ४-१० १९९८ को लिखी गयी  )

4 टिप्‍पणियां:

  1. कभी कलम थी आग उगलती , शोले का वर्षण करती I
    ज्वालामुखी जगा देती थी , झंझा भी नर्तन करती ई

    क्या बात है.
    हर पंक्ति एक प्रश्न है और प्रेरणा भी!

    शब्द पुष्टिकरण हटा दो.कमेन्ट करने में समय अतिरिक्त लगता है.

    शहरोज़

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  2. आभार !!!!! इस खाकसार की सलाह को सम्मान देने के लिए.

    समय हो तो पढ़ें
    मदरसा, आरक्षण और आधुनिक शिक्षा http://hamzabaan.blogspot.com/2010/08/blog-post_05.html

    अपने विचार से विमर्श में हस्तक्षेप अवश्य करें!


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    अपने विचार से विमर्श में हस्तक्षेप अवश्य करें!

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  3. Anupam,
    Achha chal raha hai .....dada ji ki ek kavita 1965 ke Indo-Pak war par hai jisme parmveer vijeta abdul hamid ka jikr hai .......use ho sake to 15 August ke pahle post karo.........

    जवाब देंहटाएं
  4. Anupam Bhaiya!!!
    Nana jee ke kuch nyi kavitaye update kijiye..


    Saurav from Daman

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